कविता - सिपाही
इस देश और दुनिया में जब भी होती दिखे तबाही,
रोम रोम कहता है मेरा मैं भी बन जाऊं सिपाही।
कितने वीर सपूतों ने आजादी हमें दिलानी चाही,
इन्हें स्मरण कर लगता है कि मैं भी बन जाऊं सिपाही।
मेरा भी तन मन धन इस धरती पर न्योछावर है,
अंधेरों में यह दुनिया दिखती कितनी भयावह है।
मैंने भी इन अंधेरों में एक दीप जलानी चाही,
रोम रोम कहता है मेरा मैं भी बन जाऊं सिपाही।
लड़ते रहते वह अड-अड कर, जलते रहते वह तप-तप कर,
लेकर सौगंध इस मिट्टी का रक्षा करते वह सीमा पर।
फिर दिया लहू बलिदान मगर एक भी आंच ना आने पाई,
कहता है पुलकित रक्त मेरा मैं भी बन जाऊं सिपाही।
इन वीर सपूती शेरो ने एक दहाड ऐसा मारा था,
शासन करते गोरों के घर बच्चा बच्चा घबराया था।
जब किया शत्रु संघार सभी ने उनकी ना एक चलने पाई,
तब विजय तिलक कर वीरो संग हम सब ने आजादी पाई।
कर स्मरण यह लगता है, आजाद हिंद की सेवा में मैं भी बन जाऊं सिपाही।
जिस दिन मैं भी लड़ जाऊंगा, पत्थर बन कर अड जाऊंगा,
इस देश धर्म की रक्षा को हंसते-हंसते मर जाऊंगा।
होकर मिट्टी में दफन मेरी यह रूह बनेगी इसकी गवाही,
फक्र से मैं यह कहता हूं कि सबसे आगे है हर एक सिपाही।
रोम रोम कहता है मेरा मैं भी बन जाऊं सिपाही मैं भी बन जाऊं सिपाही।
जय हिंद जय भारत।
सतीश कुमार सोनी
जैतहरी जिला-अनूपपुर मध्य प्रदेश